भावना-संचालित समाज का घोषणा काल
यह समय घोषणाओं का है। कह सकते हैं उद्घोषणाओं का समय है। पहले कोई घोषणा करता है कि वह उद्धारक है। बाद में जगह-जगह से उद्घोषणाएँ होनी शुरू होती हैं ▬ वह उद्धारक है। सभी लोग उद्घोषणा पर यकीन करते हैं और वह उद्धारक हो जाता है। हमारे मन के अंदर वह उद्धारक की जगह विराजमान होता है ▬ उद्धारक की मनोगत छवि के साथ हम सुख से जीने की कोशिश करते हैं। यह कोशिश तब तक जारी रहती है, जब तक बाहर की तपती जमीन बिल्कुल जीना मुहाल ही न कर दे, जब तक अंतःकरण पूरी तरह उपद्रव ग्रस्त न हो जाये। जब तक जीना मुहाल नहीं हो जाता हम चिरकाल तक इस मनोगत छवि के साथ सुख से जीते हैं। इसी तरह की घोषणाओं और अनुवर्त्ती उद्घोषणाओं से साधू, संत, फकीर, बाबा, नैतिकता की साक्षात मूर्त्ति, समाज सेवी, देश-प्रेमी, राष्ट्र भक्त, मुहब्बत का मसीहा, हिंदी-कवि-आलोचक-चिंतक-विचारक (अन्य भाषा-समाज की स्थिति का अनुमान नहीं), कंपनी, मैनजमेंट-गुरू, प्रॉफिट-लॉस, नास्तिक, कम्युनिस्ट आदि-इत्यादि की मनोगत छवि बनती है और लोगों के मन में विराजती रहती है। इस तरह की घोषणा और उद्घोषणा की कोई परख नहीं होती है, नहीं हो सकती है, क्योंकि मन के सत्यापन की कोई सामाजिक पद्धति नहीं है। हम में से जो लोग ऐसी मनोगत छवि को अपने अंदर सुरक्षित और अक्षत नहीं बचा पाते हैं, वे समय की मुख्य-धारा से बाहर नदी के तट पर, तलछट में फँसी या पड़ी मछली की तरह जीवन बिताते हैं। घोषणा और उद्घोषणा की सटिकता (साथ टिकने की क्षमता, सटीक अर्थात टीका सहित नहीं) की गोचर-अ-गोचर विकटता के अनुपात में मनोगत छवि बनती है; यों ही नहीं IBM अर्थात इमेज बिल्डिंग मेजर्स पर इतना जोर होता है! मन के सत्यापन की कोई पद्धति नहीं जबकि समाज मनोगत छवि के साथ जीता है! मन के सत्यापन की पद्धति के अभाव में भावना-संचालित समाज का यह घोषणा काल है। पहले भी था घोषणा का महत्त्व, परंतु उद्घोषणा के इतने प्रभावी उपकरण नहीं थे और न अंतःकरण इतना अधिक उपद्रवग्रस्त था। क्या कहते हैं...!
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