पाठकों के अभाव में बने हिंदी रचना और आलोचना के दंभ को ढहते देर नहीं लगेगी
सिर्फ किसी रचना की विलक्षणताओं और विचक्षणताओं को उद्घाटित करने की अंतर्दृष्टि-संपन्न आलोचना, यदि हो तो, दो कौड़ी की भी नहीं मानी जाती है यदि रचना के चार और खरीददार जोड़ने, कुछ और पुरस्कार जुगाड़ने, विचारधाराओं के प्रति मौखिक आग्रहशील लेखक संगठनों में कुछ और स्वीकार्यता बढ़ाने का भी सूत्र उससे न निकले। 'अच्छा' आलोचक जब किसी रचना पर नहीं रचनाकार पर मुँह खोलने की सोचता है तो पहले प्रकाशक को पता चलता है। प्रकाशक पुस्तक प्रकाशित करता है। फिर पुरस्कार प्रदान करनेवाली संस्था को पता चलता है। अच्छा आलोचक जानता है कि किस पुरस्कार प्रदाता के स्वार्थ का प्राणवाही तोता किसके पिंजड़े में बंद है! और फिर खरीददारी का सिलसिला ▬ सरकारी हुआ तो फिर क्या कहने, 'समाजसेवी समर्थित' खरीददारी भी बुरी नहीं होती! रचनाकार बेरोजगार हुआ तो रोजगार में, शोधार्थी हुआ तो शोध कार्य में, घुमक्कड़ हुआ तो देश-विदेश यात्रा में, खाने-पीने का शौकीन हुआ तो खाने-पीने में, माइक-माला-माल-मंच का सुख हासिल करने में जो आलोचना जितनी सहायक रही है, वह उतनी ही कारगर भी रही है। आलोचना को तो खुद भी शायद पता नहीं कि वह किसकी क्या होकर रह गई है! आलोचना और विचार का ऐसा कौन-सा प्रकरण हिंदी आलोचना ने जोड़ा है जिसे भारत के बाहर या भारत के भीतर की अन्य भाषा के साहित्य आलोचकों ने सम्मान के साथ अपनाया है! साहित्य के सभी व्याख्याता साहित्य के आलोचक भी हैं! जाहिर है व्याख्या, वह भी छात्रोपयोगी, आलोचना के रूप में प्रतिष्ठित है। व्याख्याता, जो कक्षाओं में जरूरत की माँग पर लिख्याता में तब्दील हो चुके हैं, हलाँकि कइयों को अपनी हैसियत की तब्दीली का पता भी नहीं होता है, स्वाभाविक रूप से शोध पुरोधा भी होते हैं। आलोचना और रचना की भाषा भंगिमा में ढाँचागत भिन्नता होती है, फिर भी कुछ लोग कबीर, तुलसी, प्रेमचंद आदि की भाषा की सहजता और कथ्य की संप्रेषणीयता का उदाहरण ठोक कर देते हैं। कोई पूछे कि कबीर, तुलसी, प्रेमचंद आदि की भाषा की सहजता और कथ्य की संप्रेषणीयता इतनी ही अधिक सुग्राह्य और अनुकरणीय है तो उनको उच्च कक्षाओं में पढ़ाये जाने तथा पढ़ाये जाने पर इतने राजकीय व्यय करने या इतने बड़े-बड़े 'विद्वानों' की नियुक्ति करने का प्रयोजन क्या है! जब आलोचना और रचना के संबंधों और सूत्रों तथा संपर्कों के तार और नतीजों को सामने लाने के लिए कोई मजबूत कलम उठेगी या कुछ कुछ अंगुलियाँ कंप्यूटर के कुंजीपटल पर नाचने के लिए मचल उठेंगी तो पाठकों के अभाव में बने हिंदी रचना और आलोचना के दंभ को ढहते देर नहीं लगेगी।
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