स्वतंत्रता-विमुख सुख के समय में
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यदि कोई व्यक्ति, समुदाय या समाज घटना, विचार, भाषा के बदलते संदर्भों के फलक को जोड़ अर्थात को-रिलेट नहीं कर सकता है तो उसके लिए अपनी भाषा में लिखित अपने समय की बौद्धिक संवेदनागत समझ से जुड़ना और अपनी समझ को हासिल करना संभव नहीं होता है। ऐसे व्यक्ति, समुदाय या समाज किसी अन्य भाषा और समाज से इन्हें आयात कर अपनी बौद्धिक संवेदनागत समझ के अभाव की भरपाई करता है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि पहला सौंदर्य है और दूसरा श्रृँगार। सौंदर्य का घटता जाना और श्रृँगार का बढ़ता जाना समय का खतरनाक इशारा है। बाजार में एकाग्र मन इस खतरा को आसानी से नहीं समझ पाता क्योंकि बाजार की भाषा में श्रृँगार ही सौंदर्य है। अन्य भाषा और समाज से आयातित बौद्धिक संवेदनागत समझ से संचालित व्यक्ति, समुदाय या समाज थोड़ी देर के लिए सुखी तो हो सकता है लेकिन स्वतंत्र नहीं; शायद स्वतंत्रता के निहितार्थ भी उसकी बौद्धिक संवेदनागत समझ से बाहर हो जाती है। हमारे समाज का सक्षम भाग सुख की तलाश में है, इसे फिलहाल स्वतंत्रता की परवाह नहीं है। ऐसे में व्यक्ति, समुदाय या समाज के लिए यह समझना भी आसान नहीं रहता है कि स्वतंत्रता में अपना सुख होता है जो चित्त के आनंद में बदलने की संभावना से भरपूर होता है जबकि स्वतंत्रता-विमुख सुख अंततः मनुष्य होने की विलक्षणताओं को अर्जित करने की संभावना से वंचित करता है।
क्या हम इस स्वतंत्रता-विमुख सुख के समय में अपनी बौद्धिक संवेदनागत समझ के अभाव की भरपाई कर पा रहे हैं! इससे भी पहले यह कि ऐसे किसी अभाव को समझ पा रहे हैं?
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